Chapter Two - The Start
भाग दो - शुरुवात
मैं ट्रेन आने के समय के पहले पहुँच गया. अभी काफी समय था इसलिए मैंने टहलना ठीक समझा. सो मैं प्लेटफोर्म पर टहलने लगा. वही पर मुझे एक किताब की दुकान दिखी तो मैं वहां पहुँच गया. बहोत सारी किताबे थी वहां कुछ जानी पहचानी तो कुछेक अनजानी. सभी की ओर मैं एक नजर देखने लगा. तभी एक किताब ने मेरा ध्यान खीचा और कवर देख के मैंने किताब ले ली. उस किताब में लेखक ने अपना अनुभव लिखा था मुंबई के बारिश का जिसे वहा पर मुंबई मानसून कहते है. जी हाँ मैं भी मुंबई जा रहा था वो भी अगस्त महीने में. देखने मुंबई मानसून जो काफी मशहूर है. थोड़ी देर में ट्रेन आयी और मैं चढ़ गया मेरे सफ़र के लिए. ट्रेन नॉन स्टॉप थी तो मैंने पहले ही खाना और पानी साथ में ले लिया था.
मैं मेरे सिट पर बैठा और मुझे ध्यान में आया की जब मैं घर से निकला था तो जोरदार बारिश शुरू थी. मैंने सिर्फ बरसाती कोट पहना था लेकिन मेरे जूते पूरी तरह गिले हो चुके थे. तो मैंने जूते निकाला और सिट के नीचे रख दिया. मैंने देखा के मेरे आजू बाजु में बहोत से लोग थे जो मुंबई जा रहे थे. कोई काम के लिए, कोई पढने के लिए, कोई किसी से मिलने, कोई काम के सिलसिले में और कोई (शायद मेरी तरह ट्रेन में और भी लोग हो उनमे से मैं भी एक) सपने सच करने के लिए.........
ट्रेन शुरू हुई तो कुछ पल लगा की जल्दी से ट्रेन से उतर जाओ और घर भाग जाओ. मुझे नहीं जाना मुंबई. फिर सोचा अगर अभी हर गया तो फिर कभी नहीं पहुँच पाउँगा मेरे मंजिल तक. जैसे जैसे ट्रेन नागपुर के बहार जाने लगी वैसे वैसे बहोत से विचार दिमाग में मंडराने लगे थे. रहने का कोई प्रॉब्लम नहीं था. दिनेश ने मेरा सारा इंतजाम कर दिया था. उसी के किसी दोस्त के यहाँ पनवेल में और वो मुझे लेने आने वाला थे स्टेशन पर. उसने मुझे बताया था के कैसे कैसे लोकल कहा से पकडनी है. दिनेश मेरा लंगोटी यार चार साल से मुंबई में था. जिस कंपनी में काम पर लगा था उस कंपनी में अभी वो Asst मेनेजर बन गया था. उसने मेहनत भी बहोत की थी. खैर दिनेश की बात बाद में. अभी मैं ट्रेन से बहार देख रहा था लेकिन कुछ समझ नहीं आ रहा था के कोनसा स्टेशन आया और गया. मैंने घडी देखि तो शाम के ८:३० बज चुके थे. सो मैंने पेट पूजा करना मुनासिब समझा और बैग से माँ ने जल्दी जल्दी में बनाया हुआ खाना निकाला और खाना चालू कर दिया. खाना खाते खाते आजु बाजु का मुआयना कर रहा था. शायद कुछ लोग खाना खाके आये थे कुछ ने ट्रेन के रसोई में आर्डर दिया था तो वे भी इंतज़ार कर रहे थे. कुछ लोग सोने के लिए चद्दर, तकिया निकल रहे थे तो कुछ लैपटॉप पर अपना काम कर रहे थे. सब अपने अपने काम में मशगुल थे. अभी मेरा भी खाना पूरा हो चूका था. इसलिए थोडा सा कुछ पड़कर सोना चाहता था. वैसे भी मुझे सफ़र में नींद नहीं आती सो मेरे टाइमपास में लिए मैंने जो किताब ली थी वो पढने लगा. किताब के कहानी एक ऐसे इन्सान के इर्द गिर्द थी जो दिल्ली से मुंबई जॉब करने आता है साथ में लाइफ एन्जॉय करना चाहता है. लेकिन मुंबई के लोकल में, ट्राफिक में और भीड़ में ऐसा फस जाता है की उससे काम के सिवा कुछ करने का समय ही नहीं मिलता. हमेशा टार्गेट और परफोर्मांस जैसे बड़े शब्दों के बिच उलझा रहता है. मैं भी मुंबई के सपने बुनने लगा था आज तक मैंने मुंबई के बारे में सुना था लेकिन ये पहली बार जा रहा था. मेरे विचारों का चक्रव्यूह चालू हो गया था और इधर ट्रेन ने भी ८०-९० की स्पीड पकड़ ली थी. ठंडी ठंडी हवा लग रही थी. कहीं बारिश की जोर की आवाज तो कहीं गाड़ियों का शोर सुने दे रहा था. लेकिन मेरे विचारों का सर्च इंजिन चालू था. कब?, क्यों?, कैसे?, किस वक़्त?...........
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